पत्रकार का जीवन शैली एवं संघर्ष
पत्रकार का जीवन शैली एवं संघर्ष
पत्रकार यदुवंशी ननकू यादव राष्ट्रीय गणित पत्रकार संघ राष्ट्रीय संगठन सचिव नयाइंडिया
पत्रकारिता को लेकर एक आमधारणा है कि यह एक Glamorous Job है। बहुत कुछ है इस नौकरी में, नाम भी-पैसा भी और सामाजिक प्रतिष्ठा भी ! नेता भी खूब पूछते हैं और अधिकारी भी, और इसी ‘पूछ’ के कारण ‘तमाम काम’ आसानी से हो जाते हैं। सुख-सुविधाओं और साधन-संसाधनों की कोई कमी नहीं…कुल मिलाकर एक Well Settled जिंदगी ! जबकि हकीकत बिल्कुल ही उलट है…?
ये जो ऐशोआराम होते हैं अधिकांश के नसीब में नहीं होते…सुबह से कब रात हुई और कब फिर सुबह, खबरों की दौड़ भाग में पता नहीं लगता ! पारिवारिक दायित्वों की संपूर्ण पूर्ति कर पाना एक पत्रकार के लिए किसी चुनौती से कम नहीं ! उसके माँ-बाप, बीवी-बच्चों अथवा अन्य परिजनों का जिस समय पर अधिकार होता है, वह समय तो खबरों की खोज में निकलता है !
तमाम झंझावातों को झेलते हुए खबरों की खोज और फिर ऑडियो-वीडियो अथवा लिखित रूप में उसके प्रस्तुतिकरण में लगा रहता है एक पत्रकार ! कितने ही दुश्मन बनाता है , कितनी ही रंजिशें मिलती हैं उसे सौगात में..! गाड़ी-बंगला और हाई क्लास लाइफ स्टाइल को तो भूल ही जाईये, पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग रोटी-कपड़ा-मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित करने को जद्दोजहद करता रहता है ! उम्र ढलती जाती है, ज़िम्मेदारियाँ और समस्याएं बढ़ती जाती हैं…और अस्त-व्यस्त जीवनशैली के कारण इस पेशे के संग सौगात के रूप में जुड़ी बीपी-शुगर-हाइपरटेंशन जैसी बीमारियाँ भी !
संस्थान शोषण की हद तक काम करवाने के बाद दूध में से मक्खी की भाँति किनारे करने से गुरेज नहीं करते क्योंकि उन्हें कुछ और “सस्ते मज़दूर” आसानी से मिल जाते हैं..बड़ी तादाद में अवैतनिक भी…और यह क्रम जारी रहता है !
दरअसल समाज में व्याप्त बुराइयों पर प्रहार करने वाला यह चौथा स्तंभ खुद ही शोषण का शिकार है, अधिकारों से वंचित है किंतु इसकी बात सुनने वाला कोई नहीं ! सरकारों को फुर्सत नहीं और मालिकों की इच्छा नहीं… नतीजा यह कि ‘अभावों’ की पूर्ति हेतु कुछ ऐसा होता दिखने लगता है जोकि पेशे को कलंकित करता है और पत्रकार व पत्रकारिता पर आरोप लगते हैं ! कुछेक बदनीयती से भले ही जुड़े हों इस पेशे से लेकिन आज भी अपना सर्वस्व झोंकने तथा न्यौछावर कर देने वाले भी कम नहीं इस पेशे में ।
कोरोना काल पत्रकारों के लिए खतरे की घँटी बजा चुका है..मीडिया संस्थानों में कॉस्ट कटिंग के नाम पर तमाम तिकड़मों के माध्यम से तनख्वाह घटाने और छँटनी का जो दौर शुरू हुआ वह लंबे समय तक असर दिखायेगा । पाठकों की बदलती रुचि, दिनचर्या और लाइफस्टाइल को देखते हुये डिजिटल में बेशक कुछ बेहतर अवसर बनते दिख रहे हैं किंतु सरकारी नियमों-पाबंदियों के साथ अपने ईमानदार प्रयास देने वालों के लिये चुनौतियाँ कम नहीं होंगी।
ईश्वर से प्रार्थना ही की जा सकती है कि सेवायोजकों को पत्रकारों के हित में सद्प्रेरणा दे । पत्रकार भी इस दुर्गति को अपनी नियति समझना बन्द कर अपने अंदर संघर्ष का माद्दा पैदा करें । पत्रकारों की दशा और दिशा सुधारने की दिशा में केंद्र और राज्य सरकारें भी अकर्मण्यता की राह छोड़ें और पत्रकारों को सख्ती के साथ उनके अधिकार दिलाने के लिए ईमानदाराना कठोर उपाय करें ।