मनीष सिंग की कलम से — दो जुड़वां देश- एक गर्भ से एक वक्त में पैदा हुए।
मुंबई :- विभागीय संवाददाता, चक्रधर मेश्राम दि 27 मई. 2021
भारत और पाकिस्तान दोनों की एक ही आर्मी, एक ही कॉलेज से प्रशिक्षित अफसर। मगर पाकिस्तान में तीन मिलट्री तख्तापलट हुए, भारत मे लोकतन्त्र फला फूला।
कभी सोचा क्यों?? आज समझिये। पाकिस्तान में क्या नही हुआ, ?? भारत मे क्या हुआ??
पाकिस्तान का सम्विधान दस साल तक लिखा न जा सका। व्यवस्था वही पुलिस स्टेट वाली थी, जो अंग्रेज छोड़ गए थे। सब कुछ गवर्नर जनरल, याने जिन्ना के हाथ मे था। वो पद से ज्यादा, अपनी पार्टी और देश मे रिस्पेक्टेड होने की वजह से सुप्रीम थे। मगर गवर्नर जनरल उम्रदराज था, बीमार भी। कायदा ठीक से बिठाने के पहले, कायदे आजम चल बसे। दाहिने हाथ लियाकत की तीन साल में हत्या हो गयी। देश अब इनकी बन्दर ब्रिगेड के हाथ मे था, जिनका अनुभव, जिन्ना के निर्देश पर जनता में भड़काऊ भाषण, दंगे करने और गालीबाजी तक सीमित था। पार्टी या सरकार, किसी की कोई न मानता। 1953 में एंटी अहमदिया दंगे हुए। सिविल एडमिनिस्ट्रेशन फेल रहा, तो आर्मी बुलाई गई। वेल स्ट्रक्चर्ड आर्मी ने सिर्फ इसे कंट्रोल किया, बल्कि कुछ समय सिस्टमेटिकली एडमिनिस्ट्रेशन सम्भाला। आर्मी की इज्जत बढ़ी। आर्मी की सुनी जाने लगी। जनरल अयूब को पाकिस्तान सरकार में जगह मिली। जब 1958 आते आते सिविल एडमिनिस्ट्रेशन पूरा कोलैप्स हो गया, देश आर्मी प्रशाशन को सौप दिया गया। मार्शल लॉ लगा, तो पाकिस्तानी खुश हुए। कहा माशाल्लाह लग गया। अयूब जल्द ही खुदमुख्तार तानाशाह बन गए। आर्मी के बूते राज किया और उनका राज देश की तरक्की का रहा। आर्मी, दो सौ साल पुरानी, अंग्रेजो की बनाई हुई थी। 1857 का विद्रोह जो बंगाल और बिहार के इलाकों में असरकारी रहा, ब्रिटिश ने एक नीति अपनाई और इन इलाकों के लोगो को सेना से बाहर किया। अब आर्मी पंजाब के लोगो से, भर दी। तो भारत की आर्मी तीन चौथाई पंजाबियों से भरी थी। बफर के रूप में 20% नेपाली गोरखा भर दिए। पार्टीशन के बाद, आधे से ज्यादा पंजाब पाकिस्तान बना। आर्मी के आधे पंजाबी, जो मुस्लिम थे, पाकिस्तान चले गए। भारत में पंजाबियों की संख्या घटी, गोरखा रह गए, बाकी दूसरी रेजिमेंट्स भी। और अब उसमे जातीय- क्षेत्रीय अनुपात देखा जाए, तो भारत की आर्मी बैलन्स यूनिट थी। ऐसी सेना में धार्मिक क्षेत्रीय एका नही था। लेकिन 1958 तक पाकिस्तान का सिविल प्रशासन सम्भाल रही आर्मी में पंजाबी भाषी भरे पड़े थे। सिंध, खैबर, पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) का प्रतिनिधित्व सेना में , नही के बराबर था। याने अब सिविल प्रशाशन में भी प्रतिनिधित्व नही था। कुल मिलाकर पाकिस्तान के दूसरे हिस्से पंजाबी साम्राज्य की कालोनियां बन गए।
बीच बीच मे आयी डेमोक्रेटिक सरकारो ने वोट के लिए विभाजन को हवा दी। उर्दू को नेशनल लैंग्वेज घोषित कर देना, अहमदियों को नॉन मुस्लिम घोषित करना, शियाओं को दोयम दर्जे का समझना, इन सबने पाकिस्तानी सोसायटी को बारूद के ढेर पर बिठा दिया। दंगे, आंदोलन, असंतोष . इसे एक रखना किसी आर्म्ड फोर्स के बस की ही बात थी, तो आर्मी की जरूरत बढ़ती गयी। वही हालात आज हैं। इस पर आर्मी को वही वित्तीय स्वतंत्रता थी, जो ब्रिटिश जमाने से चली आ रही थी। पाकिस्तान आजादी के बाद फौजी ताकत बढ़ाता गया। दशकों तक उसका 70% नेशनल बजट आर्मी को समर्पित था। आर्मी इस पैसे का क्या करेगी, उस पर सिविल गवर्नमेंट का दखल न तब था, न आज है।
भारत की बागडोर गांधी ने अपने घोषित उत्तराधिकारी नेहरू को सौपी। जो युवा था, कांग्रेस का चुनावी चेहरा था, समावेशी और दूरदर्शी था। वह गवर्नर जनरल नही, प्रधानमंत्री था। कैबिनेट सिस्टम को लेकर नेहरू चले। ढाई साल में सम्विधान बनाया। डोमिनियन स्टेटस खत्म कर, एक वेल ऑर्गनाइज्ड रिपब्लिक बनाया, चुनाव कराए।
और खुद भी प्रधानमंत्री पद पर ही रहे। ऐसा पद जिसका नाम सम्विधान में एक बार बस आता है। जो राजा के बराबर राष्ट्रपति को, सलाह मात्र देने के लिए होता है। किसी दूसरे को संवेधानिक बॉस स्वीकारने का बावजूद, यह उनका निजी आभामंडल, और नैतिक स्वीकार्यता थी, जिसने सन्सद, मन्त्रिमण्डल, फर्स्ट अमंग इक्वल की परिपाटियां बिठाई और लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत किया। उन्होंने सिविल ब्यूरोक्रेसी को मजबूत किया। तेजी से विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएं लायी। आजादी मिलते ही दस साल में विकास के मंदिर दिखने लगे। आजादी के बाद 15 साल, लोगो को किसी दमन का सामना नही करना पड़ा। धार्मिक समूहों के सेपरेट इलेक्टोरेट खत्म किये गए। कांग्रेस का संगठन, मुस्लिम लीग के उलट, बहुलता वादी था। तो सरकारो में सभी जाति धर्म समुदायों के लोग को अवसर मिला। कुछ को उनकी जनसाख्यिक क्षमता से ज्यादा भी, जिसे आजकल व्हाट्सप में तुष्टिकरण कहते हैं।
और हां, मंडल के चालीस साल पहले, सरकारी नौकरियों में आरक्षण भी लागू हुआ। यह भी नेहरू की देन थी। जो मेरिट के छातीकुटवे हैं, जरा समझें, की सरकारी नौकरी आपके “कालेक्स” “करोला” और लिखने-रटने की क्षमता का इनाम नही है। रेजीम को प्रशासन में सभी समुदायों को प्रतिनिधित्व देना मजबूरी है। ऐसी पॉलिसी, देश को अखण्ड, शांत रखने की दूरदर्शिता है!
जब नेहरू को भाषायी आधार पर तनाव होता दिखा, तो उस आधार पर राज्य बनाए। फेयर इलेक्शन, और राज्यों में निर्वाचित सरकारें बनी। केंद्र और राज्य की सरकारों के बीच अधिकार लूटने की परंपरा नही बैठी, बल्कि सम्विधान में लिखे स्पस्ट विभाजन को क्रियान्वित होने दिया गया। राज्य के मुख्यमंत्री को, प्रधानमंत्री के मातहत कर्मचारी के जैसे ट्रीट करने की परम्परा नही रखी । और सेना को लेकर नेहरू प्रो एक्टिव रहे। उनकी अपनी अंतराष्ट्रीय वकत, भारत के वजन से ज्यादा थी। वे और कृष्णा मेनन