भारतीय मीडिया में दलित पत्रकार क्यों नहीं हैं?
भारतीय मीडिया में दलित पत्रकार क्यों नहीं हैं?
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पत्रकार यदुवंशी ननकू यादव राष्ट्रीय ग्रामीण पत्रकार संघ
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अंग्रेजी पत्रकारिता में आपको खुलेआम खुद को समलैंगिक बताने वाले लोग ज्यादा मिल जाएंगे, बनिस्बत ऐसे लोगों के जो खुल कर अपना दलित होना कुबूल करते हों.
पिछली गर्मियों में एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म (एसीजे) में डायवर्सिटी प्रोजेक्ट (विविधता परियोजना) को गोपनीय रखने की सारी कोशिशें की गईं. लेकिन कक्षाएं शुरू होने के कुछ दिनों के बाद ही यह बात किसी तरह से सार्वजनिक हो गई कि चेन्नई के इस प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थान में, जहां पढ़ना और रहना ठीक-ठाक खर्चीला है, कुछ विद्यार्थियों को पढ़ाई करने के लिए जाति आधारित स्कॉलरशिप दी गई है.
2020-21 बैच के मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से वास्ता रखने वाले ऊंची जातियों के कई छात्र इससे नाराज हो गए. उन्होंने इसे ‘उलटा जातिवाद’ करार देते हुए इसके खिलाफ कानाफूसी अभियान शुरू कर दिया. ये बात जैसे-जैसे कैंपस के बाहर तक फैली, ऊंची जातियों के मध्यवर्गीय एल्युमनाई (पूर्व छात्र) भी इस सामूहिक कानाफूसी में शरीक हो गए. उन्होंने संस्थान के संस्थापकों पर ‘नकली कम्युनिस्ट’ होने, ‘संस्थान पर मार्क्सवाद थोपने के अभियान में शामिल होने, जातिवादी व्यवहार करने और विद्यार्थियों की जेब काटने’ का आरोप लगाया.
इनमें से जो थोड़े प्रगतिशील किस्म के थे, उनका यह कहना था कि जाति आधारित स्कॉलरशिप से उन्हें कोई दिक्कत नहीं है लेकिन उनकी इच्छा है कि संस्थान को आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों, दूसरे शब्दों में ऊंची जातियों के गरीब विद्यार्थियों की भी मदद करनी चाहिए.
बात चाहे एसीजे की हो या अंग्रेजी माध्यम के अन्य प्रतिष्ठित निजी पत्रकारिता संस्थानों की, तथ्य यह है कि इनकी कक्षाओं में तथाकथित ऊंची जाति के छात्रों का भारी बहुमत होता है, जिसका परिणाम यह होता है कि पूर्व छात्रों के प्रभावशाली नेटवर्क में भी इन्हीं जातियों का दबदबा होता है.
गरीब/अमीर, ग्रामीण/शहरी, भाषाई रूप से अलग-अलग, हिंदू, मुस्ल्मि, ईसाई और गेहुएं रंग का हर व्यक्ति; उपमहाद्वीप के वैसे तमाम लोग, जो यहां आम तौर पर पाई जाने वाली एक किस्म की दृष्टिहीनता के शिकार हैं, उन्हें यह विविधता आश्चर्यजनक लगती है. लेकिन, आंखें, खोल कर देखें तो ये सब दुखद रूप से एक ही हैं.
भारत के किसी भी दूसरे प्रतिष्ठित संस्थान की ही तरह, फिर चाहे वह अकादमिक हो, विधायी हो, न्यायिक हो या नौकरशाही से संबंधित हो या पत्रकारिता से जुड़ा हो, एसीजे ‘अन्य’ सामाजिक समूहों से आने वाले तमाम लोगों के लिए एक पराई जगह साबित हो सकता है.
पिछले साल जून महीने में दाखिला लेने वाले 190 छात्रों में वहां का मैनेजमेंट सिर्फ 6 दलितों और एक आदिवासी की पहचान कर सका. बाकी सारे सवर्ण यानी तथाकथित ‘छुई जा सकने वाली’ जातियों से ताल्लुक रखते थे, चाहे उनका धर्म, भाषा, खानपान (चाहे वे बीफ खाने वाले हों या न हों) कुछ भी क्यों न हों. हर साल की तरह इनमें सबसे बड़ा समूह बंगाली सवर्णों का था, उसके बाद हिन्दीभाषी सवर्ण थे, उसके बाद मलयाली सवर्णों का नंबर था. और हर साल की तरह इन छूए जा सकने वालों में ब्राह्मणों का बहुमत था.
इस पेशे में ब्राह्मणों के वर्चस्व का इतिहास देश में अंग्रेजी पत्रकारिता के इतिहास जितना ही पुराना है. लेकिन, जो चीज वास्तव में परेशान करने वाली है; वह यह कि 200 सालों के बाद भी पत्रकारिता की आधुनिक कक्षा भारत के एक आम अंग्रेजी न्यूजरूम की हूबहू मूरत नजर आती हैं.
ऐसी जगहों पर दलितों और आदिवासियों को लेकर आना खतरनाक है, जहां वे संख्या में बेहद कम हैं, जहां उन्हें मु्फ्तखोर करार देकर उनके साथ कटु व्यवहार होता है, और जहां वे अपनी असली पहचान को छिपा कर ही सिर ऊंचा करके चल सकते हैं. दलित और आदिवासी एक्टिविस्टों और छात्र नेताओं ने छात्रों को एसीजे की स्कॉलरशिप के लिए आवेदन करने से हतोत्साहित किया है और उन्हें अकादमिक जगत या सिविल सेवा में कॅरियर बनाने की ओर मोड़ने की कोशिश की है. हालांकि, ये क्षेत्र भी जातिवाद से मुक्त नहीं हैं, लेकिन कम से कम वहां इस बात का भरोसा तो है कि किसी को बस इस कारण निकाल बाहर नहीं किया जाएगा, क्योंकि किसी को उनकी नस्ल पसंद नहीं है।
पिछले दस वर्षों से एसीजे अनुसूचित जातियों और जनजातियों (एससी/एसटी) के लिए 4 पूरी तरह से वित्त पोषित सीटों की व्यवस्था कर रहा है. लेकिन, इन सीटों पर विरले ही किसी ने कभी दावेदारी की है. या तो पर्याप्त संख्या में आवेदन नहीं आए या इससे भी दुखद यह है कि जिन्होंने आवेदन किया, वे भी विशेषाधिकार हासिल वर्गों के उम्मीदवारों से पिछड़ गए.
फिर एक दिन छह दलितों और एक आदिवासी विद्यार्थी ने संस्थान के दरवाजे पर दस्तक दी. ये पिछली गर्मियों की बात है. इनमें से तीन लड़कियां और दो लड़के अति वंचित माडिगा जाति से ताल्लुक रखते थे. उनमें से सिर्फ एक संपन्न परिवार से था और संस्थान की फीस चुकाने में समर्थ था. बाकी में से तीन दिहाड़ी मजदूरों के बच्चे थे. एक लड़की के पिता किसान थे और मां स्कूल की टीचर थीं. दो इकलौती कमाई वाले परिवारों से थीं, जिनके पिता कम आय वाली नौकरियों में थे.
इनमें से सभी ने न सिर्फ उन प्रतियोगियों से मुकाबला किया, जिनके पीछे पीढ़ियों से विशेषाधिकार का बल था, बल्कि उन्हें पछाड़ा भी.
एसीजे और साउथ एशियन फाउंडेशन (एसएएफ) ने इन छह छात्रों की ट्यूशन फीस और आवास के लिए करीब 2,000,000 रुपए (30,800 अमेरिकी डॉलर) की मदद की. जब यह रकम कम पड़ गई, तो अंग्रेजी मीडिया में काम कर रहे वरिष्ठ पत्रकारों के एक चुने हुए समूह से, जिन पर सकारात्मक कार्रवाई का समर्थन करने के मामले में विश्वास किया जा सकता था, आर्थिक मदद की गुहार लगाई गई. इन लोगों ने मिलकर कम पड़ रही रकम के संकट को हफ्ते भर में खत्म कर दिया. बल्कि उनकी मदद के बाद इतना पैसा और बच गया कि विद्यार्थियों को चेन्नई की ब्रिटिश काउंसिल में अंग्रेजी की अतिरिक्त कोचिंग के लिए भी स्पांसर किया जा सकता था.
लेकिन डोनेशन के आने का सिलसिला थमा नहीं और अंत में इतना पैसा जमा हो गया कि कोर्स के अंत में सभी छह छात्रों के पास एक लैपटॉप, कैमरा और वॉयस रिकॉर्डर भी था.
वरिष्ठ पत्रकारों का समूह अब इसे एक वार्षिक कार्यक्रम का रूप देने और इसके भीतर पत्रकारिता के दूसरे संस्थानों को भी शामिल करने की योजना बना रहा है. उनकी योजना भारतीय संपादकों से विविधता के पक्ष में प्रतिज्ञा कराने के लिए एक राउंड टेबल मीटिंग का आयोजन करने की भी है.
लेकिन इस कहानी के भीतर कहानी यह है कि जब ये छह छात्र संस्थान से पढ़ाई पूरी कर रहे थे, तब अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्रों में से सभी ने मुझसे यह बात कही कि कोई इनके पास यह दरयाफ्त करने आया था कि क्या उन्हें ‘उन’ छात्रों के बारे में कुछ पता है? उनमें से एक दलित छात्र ने कहा, ‘मेरे अपने रूममेट्स ने मुझसे यह कहना शुरू किया कि वे इस बात का पता लगाना चाहते हैं कि आखिर स्कॉलरशिप किन्हें मिली है? वे यह पता करना चाहते थे कि क्या जिन्हें स्कॉलरशिप मिली हैं, वे वास्तव में इसके योग्य थे.’ वह यह कहते हुए मुस्करा उठा, ‘उसकी परेशानी बस ये थी कि वह विद्यार्थियों के चेहरों को देख कर दलित और आदिवासी नहीं छांट पा रहा था.’
यह वास्तव में ईश्वर की बड़ी रहमदिली है कि कुछ ब्राह्मण आबनूस की तरह (काले) रंग के होते हैं और कुछ दलित आड़ू की तरह (लाल) होते हैं. पिछले दस सालों में जिसे भी यह स्कॉलरशिप मिली उसे योग्य होने के बावजूद लुका-छिपी का यह दुखद खेल खेलने पर मजबूर होना पड़ा. हर साल की तरह इस साल भी मैनेजमेंट को हस्तक्षेप करना बड़ा और इससे पहले कि वे छह छात्रों की पहचान कर पाते, जाति पहरेदारों को अनुशासित करना पड़ा.
अंग्रेजी पत्रकारिता में आपको खुलेआम खुद को होमोसेक्सुल कबूल करने वाले लोग ज्यादा मिल जाएंगे, बनिस्बत ऐसे लोगों के जो खुल कर अपना दलित होना कुबूल करते हों. भारतीय पत्रकारिता इस कदर दिमाग को चकरा देने वाले स्तर तक उच्च जातीय है कि पत्रकार याशिका दत्त द्वारा बस अपने दलित होने की स्वीकृति को जाति-विविधता हासिल करने की दिशा में एक मील के पत्थर के तौर पर देखा गया.
ऐसा नहीं है कि एक न्यूजरूम किसी गांव की तरह है, जहां हर कोई यह जानता है कि कौन किसका बेटा या बेटी है, कौन कहां रहता है. दलितों के लिए न्यूजरूम के रॉक स्टारों के घमंडीपने को नजरंदाज करना और न्यूज रूम की भीड़ में घुल-मिल जाना काफी आसान है, जहां हर कोई यह कह देने पर कि आप बंगाल से हैं, यह मान लेता है कि आप बंगाली भद्र लोक तबके से ही होंगे.
देश में दस सालों तक खोजने के बाद मैं अंग्रेजी मीडिया में बस आठ दलितों की खोज कर पाया हूं. इनमें से सिर्फ दो अपनी दलित पहचान उजागर करने की हिम्मत जुटा पाए हैं.