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कठपुतली बना निर्वाचन आयोग लाखों भारतीयों की नागरिकता खतरे में

Summary

यदि भारतीय रिजर्व बैंक जाली नोटों का सवाल उठाकर खुद के जारी किए गए नोट लेने से इंकार कर दे तो जनता का क्या होगा? कुछ भी नहीं होगा क्योंकि सरकार और न्यायालय उसकी हाँ में हाँ मिलाएंगे। अब इसे […]

यदि भारतीय रिजर्व बैंक जाली नोटों का सवाल उठाकर खुद के जारी किए गए नोट लेने से इंकार कर दे तो जनता का क्या होगा?

कुछ भी नहीं होगा क्योंकि सरकार और न्यायालय उसकी हाँ में हाँ मिलाएंगे।

अब इसे इस उदाहरण से समझिए—
देश का निर्वाचन आयोग अपने ही द्वारा जारी मतदाता पहचान-पत्र को वैध नहीं मान रहा है। यदि वह वैध नहीं है तो उसे जारी क्यों किया गया था? यही मतदाता पहचान-पत्र एक साल पहले हुए लोकसभा चुनाव में वैध क्यों और कैसे था? सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से यह नहीं पूछा और उसे मनमानी करने से रोका नहीं।

निर्वाचन आयोग निरंकुशता की सीमा पार कर हिटलरशाही चला रहा है जो बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के तहत मतदाता सूची के सत्यापन के लिए आधार कार्ड, मनरेगा कार्ड, राशन कार्ड और यहाँ तक कि अपने द्वारा पहले जारी मतदाता पहचान-पत्र को स्वीकार्य दस्तावेजों के रूप में नहीं मान रहा है।

देश में यह पहली बार हो रहा है जब लोगों को इतने व्यापक स्तर पर अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए बाध्य किया जा रहा है। इसमें हुई किसी भी चूक के साथ ही व्यक्ति की नागरिकता खतरे में पड़ जाएगी।

केंद्र सरकार अपने प्रोपेगैंडा-तंत्र में बदल दिए गए देश के तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के जरिए बिहार तथा बंगाल जैसे उन राज्यों में बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार से आए घुसपैठियों की भारी संख्या को खबरों की तरह प्रचारित कर रही है जहाँ आने वाले दिनों में विधानसभा चुनाव होने हैं। वह ऐसा करते हुए यह भुला दे रही है कि यदि देश में सीमापार से भारी संख्या में घुसपैठ हुई है तो यह उसकी अपनी ही असफलता है। जब ऐसे लोग यहाँ आ रहे थे तो उन्हें रोका क्यों नहीं? उन्हें रोकने का दायित्व केंद्र सरकार का ही है न कि राज्य सरकार का।

विपक्षी दलों का दावा है कि पुनरीक्षण प्रक्रिया में बिहार में कम से कम 56 लाख मतदाताओं के नाम कट सकते हैं। इनमें से 20 लाख मतदाताओं की मृत्यु हो गई है। 28 लाख मतदाता अपने पंजीकृत पते से स्थाई रूप से पलायन कर गए हैं। एक लाख मतदाताओं का कुछ पता नहीं है। 7 लाख मतदाता एक से अधिक स्थान पर पंजीकृत पाए गए हैं। चुनाव आयोग के इस विशेष अभियान से जुड़े अधिकारियों के अनुसार करीब 15 लाख मतदाता अभी भी ऐसे हैं जिन्होंने अपने गणना प्रपत्र वापस नहीं किए हैं।

मो+शा की कृपा से मुख्य निर्वाचन आयुक्त बने ज्ञानेश कुमार के चुनाव आयोग ने बिहार मतदाता सूची पुनरीक्षण मामले पर हो रही आलोचना को लेकर उनके राजनीतिक एजेंट की तरह एक बयान में कहा है कि ‘भारत का संविधान, भारतीय लोकतंत्र की माँ है। तो क्या विरोध से डरकर चुनाव आयोग को कुछ लोगों के दबाव में भ्रमित हो जाना चाहिए और उन लोगों का रास्ता साफ कर देना चाहिए, जो मृत मतदाताओं के नाम पर फर्जी मतदान करते हैं? जो मतदाता स्थायी तौर पर पलायन कर गए हैं, जो मतदाता फर्जी या विदेशी हैं, क्या उन्हें संविधान के खिलाफ जाकर, पहले बिहार में और फिर पूरे देश में मतदान करने दें?’

अब क्या ये (अ)ज्ञानेश कुमार बता सकते हैं कि जो मतदाता अभी एक साल पहले हुए लोकसभा चुनाव तक वैध मतदाता थे, तो फिर वे अब अवैध क्यों और कैसे हो गए हैं? क्या सिर्फ एक ही वर्ष में इतनी बड़ी संख्या में विदेशी घुसपैठिए बिहार में आ गए?

बिहार में चालू मतदाताओं की विशेष पुनरीक्षण प्रक्रिया भाज पार्टी के हाथों सत्ता की लूट का एक षड्यंत्र है। इसकी शुरुआत तभी हो गई थी जब चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए चयन समिति में देश के मुख्य न्यायाधीश को हटाकर केंद्रीय मंत्री को लाया गया ताकि सत्ता अपने चमचे को मुख्य निर्वाचन आयुक्त के पद पर बैठाकर मनमाने काम करवा ले।

अब जब इस विशेष पुनरीक्षण प्रक्रिया में की जा रही धाँधली से सुप्रीम कोर्ट ने पल्ला झाड़ लिया है तो विपक्षी दल तथा मतदान से वंचित किए जा रहे मतदाता अपनी फरियाद लेकर कहाँ जाएं? तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि देश में व्यवस्था स्वयं अराजक और निरंकुश हो गई है?

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